5 दिन हो गए हैं ,मैं दूरबीन लगा कर उन प्रगतिशीलों की प्रतिक्रियाएं ढूंढ रहा हूँ जो यूँ तो अत्यधिक संवेदनशील और प्रज्वलनशील हैं पर देशद्रोह के मुद्दे पर वे या तो खामोश हैं या कुतर्क देने में लगे हैं
यद्यपि कि वे नेता नहीं हैं अतः उन्हें कोई चुनाव भी नहीं लड़ना , फिर भी वे या तो गूंगे बहरे बने हुए हैं या कुतर्कों से ज़वाब दे रहे हैं
क्या इन नारों को क्षम्य किया जा सकता है अथवा इनका औचित्य सिद्ध किया जा सकता है
" अफज़ल हम शर्मिंदा हैं , तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं
अफज़ल तेरी क़ुरबानी से , इंकलाब आएगा
घर घर से अफज़ल निकलेगा , तुम कितने अफज़ल मारोगे
इंडिया गो बैक , गो बैक
भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला ! इंशा अल्लाह !!
असम मांगे -आज़ादी , कश्मीर मांगे आज़ादी , बंगाल मांगे आज़ादी , केरल मांगे आज़ादी " आदि आदि
जानता हूँ खामोश बुद्धिजीवियों , तुम सब देशद्रोही नहीं हो , पर इतने स्वार्थी भी क्यों हो
यह कोई मोदी विरोध नहीं है , यह नंगा देशद्रोह है
यह एक माँ को नहीं , सवा करोड देशवासियों की माँ को गाली है